Monday 22 September 2014

सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा के नाम का स्मरण करके

ओम इस सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा के नाम का स्मरण करके कठोपनिषद का आरंभ करते हैं

प्रसिद्ध है कि यश का फल चाहने वाले वाजीश्रवा के पुत्र उद्दालक ने (विश्वजित यज्ञ में) अपना सारा धन (ब्राह्मणों को) दान कर दिया। उसका नचिकेता नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र था।। 1।।

(जिस समय ब्राह्मणों को) दक्षिणा के रूप में देने के लिए गौवें लाई जा रही थी उस समय छोटा बालक पर भी नचिकेता में श्रद्धा का आवेश हो गया और उन जराजीर्ण गायों को देखकर वह विचार करने लगा।। 2।।

जो अंतिम बार जल पी चुकी हैं जिनका घास खाना समाप्त हो गया है जिनका दूध अंतिम बार दुह लिया गया है जिनकी इंद्रियां नष्ट हो चुकी हैं ऐसी निरर्थक मरणासन्न गौवों को देने वाला वह दाता तो नीच योनियों और नरकादि लोक जो सब प्रकार के सुखों से शून्य हैं उनको प्राप्त होता है! (अत: पिताजी को सावधान करना चाहिए)।। 3।।

यह सोचकर वह अपने पिता से बोला कि हे प्यारे पिताजी! आप मुझे किसको देंगे? (उत्तर न मिलने पर उसने वही बात,) दुबारा—तिबारा कही तब पिता ने उससे क्रोधपूर्वक कहा कि तुझे मैं मृत्यु को देता हूं।। 4।।

(यह सुनकर नचिकेता मन ही मन विचारने लगा कि) बहुतो में मैं प्रथम श्रेणी के आचरण पर चलता आया हूं और बहुतो में मध्यम श्रेणी के आचार पर चलता हूं ( कभी भी नीची श्रेणी के आचरण को मैने नहीं अपनाया फिर पिताजी ने ऐसा क्यों कहा। ) यम का ऐसा कौन— सा कार्य हो सकता है जिसे आज मेरे द्वारा ( मुझे देकर) (पिताजी) पूरा करेगे?।। 5।।

उसने अपने पिता से कहा : आपके पूर्वज पितामह आदि जिस प्रकार का आचरण करते आए हैं उस पर विचार कीजिए और ( वर्तमान में भी) दूसरे श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण कर रहे हैं उस पर भी दृष्टिपात कर लीजिए (फिर आप अपने कर्तव्य का निश्चय कर लीजिए। ) यह मरणधर्मा मनुष्य अनाज की तरह पकता है अर्थात जराजीर्ण होकर मर जाता है तथा अनाज की भांति ही फिर उत्पन्न हो जाता है।। 6।।

अतएव इस अनित्य जीवन के लिए मनुष्य को कभी कर्तव्य का त्याग करके मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिए। आप शोक का त्याग कीजिए और अपने सत्य का पालन कर मुझे मृत्यु ( यमराज) के पास जाने की अनुमति दीजिए। पुत्र के वचन सुनकर उद्दालक को दुख हुआ परंतु नचिकेता की सत्यपरायणता देखकर उन्होंने उसे यमराज के पास भेज दिया। नचिकेता को यमसदन पहुंचने पर पता लगा कि यमराज कहीं बाहर गए हुए हैं अतएव नचिकेता तीन दिनों तक अन्न— जल ग्रहण किए बिना ही यमराज की प्रतीक्षा करता रहा।

यमराज के लौटने पर उनकी पत्नी ने कहा—हे सूर्यपुत्र! स्वयं अग्निदेवता ही ब्राह्मण अतिथि के रूप में गृहस्थ के घरों में प्रवेश करते हैं साधुपुरुष उनका सत्कार किया करते हैं अत: आप उनके लिए जल आदि अतिथि— सत्कार की सामग्री ले जाइए।। 7।।

जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किए निवास करता है उस मंदबुद्धि मनुष्य की नाना प्रकार की आशा और प्रतीक्षा उनकी पूर्ति से होने वाले सब प्रकार के सुख सुंदर भाषण के फल एवं यह दान आदि शुभ कर्मों के फल तथा समस्त पुत्र और पशु आदि वैभव, इन सबको वह नष्ट कर देता है।। ८।।

पत्नी के वचन सुनकर यमराज नचिकेता के पास गए और उसका यथोचित सत्कार कर बोले. हे ब्राह्मण! आप अतिथि हैं। आपको नमस्कार हो। हे ब्राह्मण! मेरा कल्याण हो। आपने जो तीन रात्रियों तक मेरे घर पर बिना भोजन किए निवास किया है इसलिए (आप मुझसे) प्रत्येक रात्रि के बदले (एक— एक करके) तीन वरदान मांग लीजिए।। 9।।

यमराज ने जब इस प्रकार कहा तब पिता को सुख पहुंचाने की इच्छा से नचिकेता बोला : हे मृत्युदेव! मेरे पिता गौतमवशीय उद्दालक मेरे प्रति शांत संकल्प वाले प्रसन्नचित्त और क्रोध एवं खेद से रहित हो जाएं तथा आप के द्वारा वापस भेजे जाने पर जब मैं उनके पास जाऊं तो वे मुझ पर विश्वास करके पुत्र— भाव रखकर मेरे साथ प्रेमपूर्वक बातचीत करें। यह मैं अपने तीनों वरों में पहला वर मांगता हूं। 10।।

यमराज ने कहा : तुमको मृत्यु के मुख से छूटा हुआ देखकर मुझसे प्रेरित तुम्हारे पिता उद्दालक पहले की भांति ही यह मेरा पुत्र नचिकेता ही है ऐसा समझ करके दुख और क्रोध से रहित हो जाएंगे और वे अपनी आयु की शेष रात्रियों में सुखपूर्वक शयन करेगे।। 11।।

इस वरदान को पाकर नचिकेता बोला हे यमराज! स्वर्गलोक में किंचितमात्र भी भय नहीं है; वहां मृत्युरूप स्वयं आप भी नहीं हैं वहां कोई बुढ़ापे से भी भय नहीं करता। स्वर्गलोक के निवासी भूख और प्यास इन दोनों से पार होकर दुखों से दूर रहकर सुख भोगते हैं।। 12।।

हे मृत्युदेवा आप उपर्युक्त स्वर्ग की प्राप्ति के साधनरूप अग्नि को जानते हैं अत: आप मुझ श्रद्धालु को वह अग्निविद्या भलीभांति समझाकर कहिए जिससे कि स्वर्गलोक के निवासी अमरत्व को प्राप्त होते हैं। यह मैं दूसरे वर के रूप में मांगता हूं।। 13।।

तब यमराज बोले, हे नचिकेता! स्वर्गदायिनी अग्निविद्या को अच्छी तरह जानने वाला मैं तुम्हारे लिए उसे भलीभांति बतलाता हूं; तुम उसे मुझसे भलीभांति समझ लो। तुम इस विद्या को स्वर्गरूपी अनंत लोकों की प्राप्ति कराने वाली तथा उसकी आधारस्वरूपा और (बुद्धिरूप) गुफा में छिपी हुई समझो।। १४।।

उस स्वर्गलोक की कारणरूपा अग्निविद्या का उस नचिकेता को उपदेश दिया। उसमें कुंड— निर्माण आदि के लिए जो— जो और जितनी ईटें आदि आवश्यक होती हैं तथा जिस प्रकार उनका चयन किया जाता है वे सब बातें भी बताईं। तथा उस नचिकेता ने भी वह जैसा सुना था ठीक उसी प्रकार समझकर यमराज को पुन: सुना दिया। उसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट होकर फिर बोले।। 15।।

(उसकी अलौकिक बुद्धि देखकर) प्रसन्न हो महात्मा यमराज नचिकेता से बोले : अब मैं तुम्हें यहां पुन: यह अतिरिक्त वर देता हूं कि यह अग्निविद्या तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगी तथा इस अनेक रूपों वाली रत्नों की माला को भी तुम स्वीकार करो।। 16।।

(उस अग्निविद्या का फल बतलाते हुए यमराज कहते हैं : )

इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला तीनों ऋक् साम यजुर्वेद के साथ संबंध जोड़कर यह दान और तपरूप तीनों कर्मों को निष्कामभाव से करने वाला मनुष्य जन्म— मृत्यु से तर जाता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न सृष्टि के जानने वाले स्तवनीय इस अग्निदेव को जानकर तथा इसका निष्कामभाव से विधिपूर्वक चयन करके इस अनंत शांति को पा जाता है, (जो मुझको प्राप्‍त है)।। 17।।

(ईटों के स्वरूप, संख्या और अग्नि—चयन—विधि) इन तीनों बातो को जानकर तीन बार नाचिकेत अग्नि विद्या का अनुष्ठान करने वाला तथा जो कोई भी इस प्रकार जानने वाला पुरुष इस नाचिकेत अग्नि का चयन करता है वह मृत्यु के पाश को अपने सामने ही (मनुष्य शरीर में ही) काटकर शोक से पार होकर स्वर्ग लोक में आनंद का अनुभव करता है।।18।।

हे नचिकेता यह तुम्हें बतलाई हुई स्वर्ग प्रदान करने वाली अग्नि विद्या है जिसको तुमने दूसरे वर से मांगा है। इस अग्नि को अब से लोग तुम्हारे ही नाम से स्मरण करेंगे। हे नचिकेता अब तुम तीसरा वर मानो।।19।। 

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