Monday 15 September 2014

उसमें शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रस्तुति


पृथ्वी के उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों की तरह मानवी काया के भी दो आधार है-जिन्हें धुरी के दो छोर कह सकते हैं। इनमें से एक है ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्रार कमल, दूसरा है मल-मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र। सहस्रार चक्र को उत्तरी ध्रुव और मूलाधार को दक्षिणी ध्रुव समझा जाना चाहिए। ब्रह्मरंध्र में ज्ञान बीज और जननेन्द्रिय मूल में काम बीज माना जाता है। स्थूल रूप से तो शरीर के सभी अंगों में रक्त माँस आदि भरे है, पर सूक्ष्म रूप से अवयवों के मध्य जो चेतना संस्थान है उसे शक्ति चक्र कहा जाता है। चक्र शृंखला में आदि और अन्त के यही दो प्रमुख हैं। शेष तो इन्हीं के मध्यान्तर में बने हुए हैं।
मस्तिष्क के ‘ज्ञान बीज’ से हमारी समस्त चेतना प्रभावित होती है। शरीर निर्वाह तथा लोक-व्यवहार में उसी की भूमिका प्रधान है उच्चस्तरीय भूमिका में यही केन्द्र अतीन्द्रिय क्षमताओं का उद्गम स्रोत सिद्ध होता है। और अन्ततः ब्रह्म और जीव को मिलाने वाली जीवन लक्ष्य को पूर्ण करने वाली-परमानन्द प्रक्रिया भी यही सम्पन्न होती है। ब्रह्मरंध्र अर्थात् ब्रह्म संस्थान, ब्रह्मलोक गायत्री की ब्राह्मी शक्ति कहा गया है उसका प्रभाव क्षेत्र ज्ञान चेतना है। गायत्री को ब्राह्मणी-ब्रह्म-पत्नी कहा गया है। उसकी सामर्थ्य व भौतिक जगत में दुःख दारिद्र का विनाश करने वाले ब्रह्मरंध्र के रूप में दृष्ट-दुश्कलों को परास्त करने वाले ब्रह्म दण्ड के रूप में देखा जाता है। अध्यात्म क्षेत्र में उसका स्वरूप ब्रह्म वर्चस् के रूप में देखा जाता है। गीता में कही गई ब्राह्मी स्थिति और उपनिषद् में वर्णित ब्रह्म चेतना का उद्भव उन्नयन इसी महाशक्ति के माध्यम से होता है।
पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्म जी के दो पत्नियाँ थी। प्रथम गायत्री दूसरी सावित्री। इसे अलंकारिक प्रतिपादन में ज्ञान चेतना और पदार्थ सम्पदा कहा जा सकता है। इसमें एक परा प्रकृति है, दूसरी अपरा। परा प्रकृति के अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार-अहंकार चतुष्टय ऋतम्भरा प्रज्ञा आदि का ज्ञान क्षेत्र आता है। दूसरी पत्नी सावित्री, इसे अपरा प्रकृति, पदार्थ चेतना जड़ प्रकृति कहा जाता है। पदार्थों की समस्त हलचलें-गतिविधियाँ-उसी पर निर्भर है। परमाणुओं की भ्रमणशीलता, रसायनों की प्रभावशीलता, विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, ईथर आदि उसी के भाग है। पदार्थ विज्ञान इन्हीं साधनों को काम में लाकर अगणित आविष्कार करने और सुविधा साधन उत्पन्न करने में लगा हुआ है। इसी अपरा प्रकृति को सावित्री कहते हैं। कुण्डलिनी इसी दूसरी शक्ति का नाम है।
चेतना की शक्तियों का वारापार नहीं। विद्वान, विज्ञानी, आत्म-वेत्ता महामानव, ऋषि, मनीषी इसी शक्ति का अपने-अपने ढंग से अपने-अपने क्षेत्र में उपयोग करके अपने क्षेत्र में प्रगति करते हैं। मस्तिष्कीय विकास के लिए स्कूली प्रशिक्षण से लेकर स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन, मनन और साधना समाधि तक के अगणित प्रगति प्रयास इसी आधार पर होते हैं। व्यक्तित्व और वर्चस्व की-प्रखरता की समस्त सम्भावनायें इसी क्षेत्र के साथ जुड़ी हुई है। परा प्रकृति की साधना एवं गायत्री उपासना के सहारे ही अन्तःचेतना का विकास होता है।
दूसरी शक्ति सावित्री-पदार्थ शक्ति, क्रियाशीलता इस अपरा प्रकृति से ही प्राणियों का शरीर संचालन होता है और संसार का प्रगति चक्र चलता है। शरीर में श्वास-प्रश्वास रक्त-संचार निद्रा-जागृति पाचन-विसर्जन ऊष्मा-ऊर्जा विद्युत प्रवाह आदि अगणित क्रिया-कलाप काया के क्षेत्र में चलते हैं। संसार का हर पदार्थ क्रियाशील है। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन का गतिचक्र इस सृष्टि में अनवरत गति से चलता है। प्राणी और पदार्थ सभी अपने-अपने ढंग से प्रगति पथ पर द्रुतगति से दौड़ रहे है। विकास की दिशा में कण-कण को धकेला जा रहा है। निष्क्रियता को सक्रियता के रूप में बदलने का प्रेरणा केन्द्र जिस महतत्व में सन्निहित है, उसे अपरा प्रकृति कहते हैं। सत्, रज, तम-पंचतत्व तन्मात्राएँ आदि का सूत्र संचालन यही शक्ति करती है। सिद्धियाँ और वरदान इसी के अनुग्रह से मिलते हैं। ब्रह्म जी की द्वितीय पत्नी सावित्री इसी को कहते हैं। मनुष्य शरीर में आरोग्य, दीर्घजीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति, साहसिकता, सौंदर्य आदि अगणित विशेषताएँ इसी पर निर्भर है। यों इसका विस्तार तो सर्वत्र है, पर पृथ्वी में ध्रुव केन्द्र में और शरीर के मूलाधार चक्र में इसका विशेष केन्द्र है। साधना प्रयोजन में इसी को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं।
गायत्री और सावित्री दोनों परस्पर पूरक है। इनके मध्य कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं। गंगा-यमुना की तरह ब्रह्म हिमालय की इन्हें दो निर्झरिणी कह सकते हैं। सच तो यह है कि दोनों अविच्छिन्न रूप से एक-दूसरे के साथ गुँथी हुई है। इन्हें एक प्राण दो शरीर कहना चाहिए। ब्रह्मज्ञानी को भी रक्त-माँस का शरीर और उसके निर्वाह का साधन चाहिए। पदार्थों का सूत्र संचालन चेतना के बिना सम्भव नहीं। इस प्रकार यह सृष्टि क्रम दोनों के संयुक्त प्रयास से चल रहा है। जड़-चेतन का संयोग बिखर जाय तो फिर दोनों में से एक का भी अस्तित्व शेष न रहेगा। दोनों अपने मूल कारण में विलीन हो जायेंगे। इसे सृष्टि के- प्रगति रथ के-दो पहिये कहना चाहिए। एक के बिना दूसरा निरर्थक है। अपग तत्त्वज्ञानी और मूढ मति नर-पशु दोनों ही अधूरे है। शरीर में दो भुजाएँ, दो पैर, दो आँख, दो फेफड़े, दो गुर्दे आदि है। ब्रह्म शरीर भी अपनी दो शक्ति धाराओं के सहारे यह सृष्टि प्रपंच संजोये हुए है, इन्हें उसकी दो पत्नियाँ, दो धाराएँ आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे ठीक तरह वस्तु स्थिति को समझने का प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। पत्नी शब्द अलंकार मात्र है चेतन सरता का कुटुम्ब परिवार मनुष्यों जैसा कहाँ है? अग्नि तत्व की दो विशेषताएँ है-गर्मी और रोशनी। कोई चाहे तो इन्हें अग्नि की दो पत्नियाँ कह सकते हैं। यह शब्द अरुचिकर लगे तो पुत्रियाँ कह सकते हैं। सरस्वती को कही ब्रह्मा की पत्नी कही पुत्रियाँ कहा गया है। इसे स्थूल मनुष्य व्यवहार मात्र उपमा भर के लिए है। आत्म शक्ति को गायत्री और वस्तु-शक्ति को सावित्री कहते हैं। सावित्री को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। उसमें शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रस्तुति, विकृति के निवारण का प्रयास होता है। बिजली की ऋण और धन दो धाराएँ होती है। दोनों के मिलने पर ही शक्ति प्रवाह बहता है। गायत्री और सावित्री के समन्वय से साधना की समय आवश्यकता पूरी होती है। गायत्री साधना का सन्तुलित लाभ उठाने के लिए सावित्री शक्ति को भी साथ लेकर चलना पड़ता है।
अध्यात्म क्षेत्र में ज्ञान भाग को दक्षिण मार्ग कहते हैं उसे निगम-राजयोग वेद मार्ग आदि भी कहा जाता है। दूसरे क्रिया भाग को वाम मार्ग, आगम, तन्त्र, हठयोग आदि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दोनों पृथकता-प्रतिकूलता हानिकारक है। इससे कलह और विनाश उत्पन्न होता है। देवासुर संग्राम के-उपाख्यानों को पढ़कर किसी को प्रसन्नता नहीं होती। उस वर्णन का पढ़कर खिन्नता ही उभरती है दोनों जब मिलकर साथ चलें-समुद्र मंथन में सहयोग किया तो उस क्षेत्र में दबी हुई प्रचुर सम्पदा उपलब्ध हुई। समुद्र मंथन के फलस्वरूप बहुमूल्य चौदह रत्न निकलने की कथा सर्वविदित है।लक्ष्मी, अमृत-कलश कामधेनु, कल्प-वृक्ष आदि उसी सम्मिलित प्रयास के फलस्वरूप उपलब्ध हुए थे। जब तक देव और दानव पृथक्-पृथक् रहे- लड़ते-झगड़ते रहे- कष्ट और विनाश के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त न कर सके, पर जैसे ही सहयोग बना वैसे ही समुद्र मंथन और उसकी उपलब्धि का आधार बन गया। गायत्री और सावित्री के समन्वय को ठीक इसी प्रकार के देवासुर सहयोग स्तर का कहा जा सकता है।
शिव और पार्वती के विवाह से दोनों का एकाकीपन दूर हुआ था। दोनों के संयोग से दो पुत्र हुए एक सिद्धि-दायक गणेश। दूसरे अमुर निकंदन कार्तिकेय। एक से धर्म की स्थापना होती है दूसरे से अधर्म के विनाश की। गणेश का वरदान ‘प्रज्ञा’ और कार्तिकेय का अनुदान ‘शक्ति’ है। कार्तिकेय के छः मुख है, इन्हें हठयोग के षट्चक्र कहते हैं।
गायत्री की सर्वोपयोगी सर्व-सुलभ साधना नित्य-कर्म में सम्मिलित की गई है। संध्या वन्दन अध्यात्म साधना का अनिवार्य अंग है। ‘संध्या’ का कृत्य गायत्री उपासना के बिना नहीं हो सकता। इसके उपरान्त आगे की विशेष साधनाएँ अपनाई जाती। एक अनुष्ठान दूसरा पुरश्चरण।
गायत्री साधना को चेतना पर चढ़े कषाय-कल्मषों के निवारण की पुण्य प्रक्रिया कह सकते हैं इससे आत्मसत्ता के दिव्य स्वरूप का निखार होता है। भौतिक क्षेत्र में आत्म-चेतना का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए सावित्री साधना का उपयोग करना पड़ता है। आत्मा को संसारी वर्चस्व बनाने के लिए शरीर धारण करना पड़ता ह। गायत्री रूपी आत्मा को संसारी कर्तव्यों की पूर्ति के लिए जिस सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ती है, उसे सावित्री साधना से सम्पन्न किया जाता है। पंचकोशी साधना इसी को कहते हैं।

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