Tuesday 30 September 2014

मन शक्तिशाली बन जाता है

मानसिक जप के बिना मन की स्वस्थता की भी हम कल्पना नहीं कर सकते। मन का स्वास्थ्य हमारे चैतन्य केन्द्रों की सक्रियता पर निर्भर है। जब हमारे दर्शन केन्द्र और ज्योति केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं तब हमारी शक्ति का स्रोत फूटता है और मन शक्तिशाली बन जाता है। नियम है-जहां मन जाता है, वहां प्राण का प्रवाह भी जाता है। जिस स्थान पर मन केन्द्रित होता है, प्राण उस ओर दौड़ने लगता है। जब मन को प्राण का पूरा सिंचन मिल जाता है और शरीर के उस भाग के सारे अवयवों को, अणुओं और परमाणुओं को प्राण और मन का सिंचन मिलता है तब वे सारे सक्रिय हो जाते हैं। जो कण सोये हुए हैं, वे जाग जाते हैं। चैतन्य केन्द्र को जाग्रत हुआ तब मानना चाहिए जब उस स्थान पर मंत्र ज्योति में डूबा हुआ दिखाई पड़ने लग जाए। जब मंत्र बिजली के अक्षरों में दिखने लग जाए तब मानना चाहिए वह चैतन्य केन्द्र जाग्रत हो गया है।
मंत्र का पहला तत्त्व है-शब्द और शब्द से अशब्द। शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है तब वह अशब्द बन जाता है।
मंत्र का दूसरा तत्त्व है-संकल्प। साधक की संकल्प शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। यदि संकल्प शक्ति दुर्बल है तो मंत्र की उपासना उतना फल नहीं दे सकती जितने फल की अपेक्षा की जाती है। मंत्र साधक में विश्वास की दृढ़ता होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। उसका आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिए। साधक में यह विश्वास होना चाहिए कि जो कुछ वह कर रहा है अवश्य ही फलदायी होगा। वह अपने अनुष्ठान में निश्चित ही संभवतः सफल होगा। सफलता में काल की अवधि का अन्तर आ सकता है। किसी को एक महीने में, किसी को दो चार महीनों में और किसी को वर्ष भर बाद ही सफलता मिले। बारह महीने में प्रत्येक साधक को मंत्र का फल अवश्य ही मिलना चालू हो जाता है।

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