Tuesday 23 September 2014

शिव बनकर शिव का अनुभव करो

एक यक्ष प्रश्न है-‘किमाश्चर्यं मतः परम’ अर्थात् सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? हम अपने आपको नहीं जानते यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। हजारों वर्षों से आदमी के सामने प्रश्न है - कोऽहम् मैं कौन हूं।’ ‘मैं कौन हूं’ इस प्रश्न के अन्वेषण में आदमी ने अपने अस्तित्व की कई परतें उघाड़ी। उसे प्रतीत हुआ-मेरा यह शरीर मैं नहीं है, मेरी इन्द्रियां, मेरी बुद्धि मैं नहीं है। एक बिन्दु आया, एक अन्तिम ठहराव आया, साधक के अनुभव में, वह अनुभव था, ‘सोऽहम’ ‘मैं हूं’ मेरे सिवाय अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है।
अध्यात्म की यात्रा ‘कोऽहम्’ से प्रारम्भ हुई एवं ‘सोऽहम्’ पर सम्पूर्ण हुई। अनन्तकाल से बेटा खोज रहा है अपने परम पिता को और परमपिता बेटे के हृदय में बैठा-बैठा मुस्करा रहा है तथा कह रहा है-यह रहा मैं।
आज मूल प्रश्न है-आदमी का जीवन कैसे बदले ? आदमी को परम शान्ति एवं परमानंद की प्राप्ति कैसे हो ? आदमी को बदलने के लिए अध्यात्मिक यात्रा परमावश्यक है। आध्यात्मिक साधना का अर्थ है-भीतर की यात्रा। आध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर। आत्मा के बाहर-बाहर हम यात्रा कर रहे हैं। अतीत से कर रहे हैं। कभी भीतर जाने का अवकाश ही नहीं मिला। हम मानते हैं दुनिया में जो कुछ सार है वह बाहर ही है भीतर कुछ भी नहीं। वास्तविकता यह है कि जो भीतर की यात्रा कर लेता है उसे बाहर का सत्य असत्य जैसा प्रतिभासित होने लगता है। जैसे दिन भर का थका हुआ पक्षी अपने घोंसले में आकर विश्राम करता है वैसे ही बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से त्रस्त आदमी कहीं विश्राम ले सके; कहीं शान्ति का अनुभव कर सके वह स्थान हो सकता है-केवल अध्यात्म, केवल भीतर का प्रवेश। साधना करते-करते अनुभव की चिन्गारियां उछलती है, अनुभव के स्फुलिंग बिखरते हैं, तब आदमी यह घोषणा करता है-बाहर निस्सार है, भीतर सार है। हमने भीतर को खोया-सब असार हाथ लगा। हमने भीतर को पाया-सब सार ही सार प्रतीत हुआ।
सभी धर्म इसी ओर संकेत कर रहे हैं। उपनिषद् कहते हैं। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत’ शिव बनकर शिव का अनुभव करो।
अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बुद्ध कहते हैं-‘अप्प दीपो भव’। महावीर कहते हैं ‘संपेक्खिए अप्प गमप्यएण’ आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बाइबिल कहती है 'O Father, Make my the eye, make my the light' कुरान कहती है, ‘मेरे खुदा, तेरे नूर की रोशनी इस बंदे में भर दे।’ सभी घोषणाएं एक ही गन्तव्य की ओर संकेत कर रही हैं। वीथिकाएं, पगडण्डियां अलग-अलग हो सकती हैं पर लक्ष्य सबका एक ही है और वह लक्ष्य है-आत्मा का साक्षात्कार या आत्मा की अनुभूति। आत्मा की अनुभूति के बिना आदमी का आमूल-चूल रूपान्तरण संभव नहीं है। आत्मानुभूति के लिए एक ठोस, वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक मार्ग चाहिए, एक सिस्टेमेटिक टेक्नीक चाहिए, एक विश्वसनीय पद्धति चाहिए। आप क्रोध को रोकना चाहते हैं पर रूकता नहीं अपितु रोकने के प्रयास में वह उग्र हो जाता है। हम क्रोध को रोक नहीं रहे हैं, क्रोध से कुश्ती लड़ रहे हैं। जितनी बार हमारी क्रोध से कुश्ती होती है, हम पराजित होते हैं। क्रोध और प्रबल हो जाता है और हम निर्बलतर हो जाते हैं। अध्यात्म यह कहता है-अंधकार को समाप्त करने के लिए अंधकार से लड़ने की क्या आवश्यकता है। अंधकार से लड़ा नहीं जाता। जिसकी सत्ता ही नहीं उससे लड़ाई कैसे होगी ? सत्ता तो प्रकाश की है। प्रकाश के अभाव का नाम, अनुपस्थिति का नाम अंधकार है। प्रकाश कर लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है। प्रकाश आ जाए तो अंधकार नहीं है। अशान्ति भी अभाव है, दुःख भी अभाव है, घृणा भी अभाव है। घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति। प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो तो घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य सत्य की अनुपस्थिति है। सत्य बढ़े, सत्य विकसित हो तो असत्य क्षीण हो जाएगा। अशान्ति शान्ति की अनुपस्थिति है। शान्ति जगेगी, शान्ति बढ़ेगी, अशान्ति विदा हो जाएगी। आवश्यकता है विधायक पक्ष को उभारने की, बाहर लाने की। ज्यों ही विधायक पक्ष उभरेगा, निषेधात्मक पक्ष विदा हो जाएगा। विधायक पक्ष को सबल करने के लिए साधना की आवश्यकता है। मनुष्य योनि से पूर्व की सभी योनियां प्रकृति एवं महाकाल के विधान पर आश्रित हैं। उनको कुछ करने कराने की आवश्यकता नहीं है। वे तो तैरती रहती हैं, बहती हैं। उन्हें अपने उद्धार करने की कोई चेष्टा नहीं करनी है। उनकी पदोन्नति तो उर्ध्व मुखी, सीधी एवं सरल है। मनुष्य योनि में स्वकृत कर्मों का फल भोगना होता है। यहां कर्म की गति वक्र, चक्राकार एवं अनन्त वैचित्रयमयी हो जाती है। मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं का ही करना होता है। अतः उपनिषद् कहता है, ‘उद्धेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्धार स्वयं को ही करना है।

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