Monday 22 September 2014

फिर सत्य और असत्य में क्या भेद है?

छोटे बच्चे छोटी—छोटी चीजों पर लड़ते हैं। बड़े—बूढ़े भी कुछ बड़ी चीजों पर लड़ते हुए मालूम नहीं पड़ते। छोटी ही उनकी लड़ाइयां हैं। लेकिन उम्र बड़ी होने के कारण अपनी छोटी बातो को वे बड़ा करके दिखलाते है

यह मैं बड़ा हूं यह खोज ही बचकानी है। मगर बड़े इस बचकानी खोज के लिए तर्क देते हैं। वे ढंग से बताते हैं। वे ऐसा नहीं कहते कि मैं बड़ा हूं। ऐसा कहना बहुत छोटापन मालूम पड़ेगा। वे कहते हैं, मेरा राष्ट्र महान है। लेकिन मेरा राष्ट्र महान क्यों है? क्योंकि मैं इस राष्ट्र में पैदा हुआ हूं। मेरी वजह से। मैं अगर पाकिस्तान में पैदा होता, तो पाकिस्तान महान होता। और मैं अगर अफगानिस्तान में पैदा होता, तो अफगानिस्तान महान होता। जहां मैं हूं वही राष्ट्र महान होता है। मेरा धर्म महान है। मेरा शास्त्र, मेरी गीता, मेरे पुराण, मेरे तीर्थंकर, मेरे भगवान, मेरे अवतार, वे बड़े हैं। उनके पीछे आड़ में हम बड़े हो जाते हैं। और यह पागलपन सारी दुनिया में सभी के ऊपर है।

ऐसा लगता है, मनुष्यता अभी तक प्रौढ़ नहीं हुई। पूरी मनुष्यता की औसत उम्र दस साल के करीब है। इसलिए इतने युद्ध होते हैं, इतनी मूढ़ताएं होती हैं। निपट अज्ञान से भरा हुआ सारा व्यवहार है।

अगर बूढ़े बचकाना व्यवहार करते हैं, तो कभी—कभी कोई बच्चा वृद्धों जैसा गौरवपूर्ण व्यवहार भी करता है। वह दूसरी संभावना ही नचिकेता का सार है। अब हम सूत्र में प्रवेश करें—

नचिकेता तीसरा वर मांगते हुए कहता है : मरे हुए मनुष्य के विषय में यह संशय है— कोई तो यों कहते हैं कि मरने के बाद आत्मा रहता है। और कोई ऐसा कहते हैं कि नहीं रहता है। आपके द्वारा उपदेश पाया हुआ मैं इसका निर्णय भलीभांति समझ लूं यही तीनों वरों में तीसरा वर है
सारे धर्म की खोज यही है। इस एक बिंदु पर ही सारे धर्मों का अंतस्तल टिका हुआ है कि क्या शरीर की मृत्यु मनुष्य की मृत्यु है? क्या मर जाने के बाद सभी कुछ मर जाता है, या कुछ शेष रहता है? और यह इतना केंद्रीय सवाल है कि इस पर सभी कुछ निर्भर है। जीवन के सारे मूल्य, जीवन का सारा अर्थ, प्रयोजन, अभिप्राय, जीवन की सारी गरिमा, गीत, गौरव, सभी कुछ इस एक बात पर निर्भर है कि क्या शरीर के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है?

अगर शरीर के साथ सभी कुछ समाप्त हो जाता है तो न नीति में कोई अर्थ है, न धर्म में कोई अर्थ है। न अच्छाई है फिर कुछ, न बुराई है फिर कुछ। क्योंकि अच्छे भी मिट्टी में मिल जाते हैं, बुरे भी मिट्टी में मिल जाते हैं। अच्छे आदमी की मिट्टी में और बुरे आदमी की मिट्टी में कोई गुणात्मक फर्क नहीं होता। एक चोर और एक साधु के मरे हुए शरीर में कोई भी तो भेद नहीं है। और अगर चोर भी वहीं पहुंच जाता है और साधु भी वहीं पहुंच जाता है, मिट्टी में, और दोनों समान हो जाते हैं, तो दोनों के जीवन में जो भेद था वह काल्पनिक था। क्योंकि मृत्यु ने प्रगट कर दिया कि सब भेद काल्पनिक थे। तुम अच्छे थे कि बुरे, दो कौड़ी की बात है। अगर मृत्यु के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है, तो इस जगत में कोई नैतिक, कोई धार्मिक, किसी मूल्य का, किसी वैज्यू का कोई अर्थ नहीं है। फिर बेईमानी और ईमानदारी समान हैं। फिर हत्या और जीवनदान बराबर हैं। फिर हिंसा और अहिंसा में कोई भी फर्क नहीं है। फिर सत्य और असत्य में क्या भेद है? फिर मैं अच्छा रहूं या बुरा रहूं जब अंत में सब समान ही हो जाता है, और अच्छे और बुरे दोनों ही मिट्टी में मिलकर खो जाते हैं, तो अच्छे होने की सारी आधारशिला गिर जाती है।

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