Thursday 25 September 2014

श्वांस को देखने से मन की एकाग्रता बढ़ती है

दृश्य-दर्शन से तात्पर्य है किसी भी स्थूल बिन्दु पर दृष्टि टिकाकर धारणा करना। वह बिन्दु ¬ हो सकता है, राम, कृष्ण एवं शिव का चित्र एवं मूर्ति हो सकता है। अपने गुरु का चित्र हो सकता है। अपने शरीर का कोई भी संवेदनशील अंग हो सकता है। यथा नासिकाग्र, भृकुटी, नाभि, हृदय आदि-2 प्राण-दर्शन भी सुगम एवं सरल है। प्राण-दर्शन से तात्पर्य श्वांस दर्शन से श्वांस और जीवन दोनों एकार्थक जैसे हैं जब तक जीवन तब तक श्वांस और जब तक श्वांस तब तक जीवन। शरीर और मन के साथ श्वांस का गहरा सम्बन्ध है। यह ऐसा सेतु है जिसके द्वारा नाड़ी संस्थान, मन और प्राण शक्ति तक पहुंचा जा सकता है। श्वासं को देखने का अर्थ है - प्राण शक्ति के स्पंदनों को देखना और उस चैतन्य शक्ति को देखना, जिसके द्वारा प्राण शक्ति संपदित होती है। श्वांस को देखने से मन की एकाग्रता बढ़ती है। श्वांस दीर्घ एवं मंद होना चाहिए।
दूसरा तरीका है-नाद-श्रवण का। कोई भी मधुर भक्ति स्वरों की या मंत्र स्वरों की कैसेट भर ली जाए और उसको धीमी आवाज में चलाते हुए मस्त होकर सुना जाए। मन को पूरा का पूरा उसमें लगा दिया जाए। कानों में रूई की डाट लगाकर या अंगुलियां डालकर अपने शरीर के कलरव को सुना जाए। हृदय, नाड़ियां एवं रक्त परिभ्रमण के स्वर को दत्तचित्त होकर सुना जाए। इसी शरीर के स्वर में से ‘सोऽहम्’ का स्वर फूट पड़ता है। रात्रि की सन-सन की आवाज के साथ मन को लगाया जाए। आधा घंटे का अभ्यास ही साधक को शून्य स्थिति में उतार देता है। पर यह साधना जंगल में ही संभव है, गांव या बस्ती में संभव नहीं है।
तीसरा तरीका है-शून्य विचरण। यह काफी कठिन एवं श्रम साध्य है, विशेषकर नव साधकों के लिए। लम्बे अभ्यास के बाद तो कोई भी साधक शून्य स्थिति में ही पहुंचते हैं पर प्रथम छलांग में ही शून्य में ठहरना काफी कठिन है। इस साधना में किसी भी प्रकार का नियंत्रण वर्जित है। विचार आए तो आने दें। उन्हें रोके नहीं। विचारों को देखो। संकल्प विकल्प आए तो उन्हें भी देखते रहें। करना कुछ नहीं, केवल देखना है। जान लेना है कि यह ऐसा हो रहा है। जैसे ही विचारों को देखना प्रारम्भ करते हैं, विचारों का आना बंद हो जाता है। विचार रूकते ही एक शून्य स्थिति पैदा हो जाती है। उस शून्य स्थिति में रहना ही शून्य विचरण कहलाता है।
तीन तरीके आपको सुझाए गए हैं जो आपको अच्छा लगता हो, सरल लगता हो, आपकी प्रकृति एवं स्वभाव के अनुकूल हो, वही अपना लीजिए। ध्यान रहे साधना का प्रारम्भ दृढ़ संकल्प से प्रारम्भ होता है और दृढ़ भाव से साधना का समापन होता है। 

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