Tuesday 30 September 2014

कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो

संकल्प तत्त्व में श्रद्धा समन्वित है। श्रद्धा का अर्थ है-तीव्रतम आकर्षण। केवल श्रद्धा के बल पर जो घटित हो सकता है, वह श्रद्धा के बिना घटित नहीं हो सकता। पानी तरल है। जब वह जम जाता है, सघन हो जाता है तब वह बर्फ बन जाता है। जो हमारी कल्पना है, जो हमारा चिन्तन है वह तरल पानी है। जब चिन्तन का पानी जमता है तब वह श्रद्धा बन जाता है। तरल पानी में कुछ गिरेगा तो वह पानी को गंदला बना देगा। बर्फ पर जो कुछ गिरेगा, वह नीचे लुढ़क जायेगा, उसमें घुलेगा नहीं। जब हमारा चिन्तन श्रद्धा में बदल जाता है तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम होता है।
मंत्र का तीसरा तत्त्व है-साधना। शब्द भी है, आत्म विश्वास भी है, संकल्प भी है तथा श्रद्धा भी है, किन्तु साधना के अभाव में मंत्र फलदायी नहीं हो सकता। जब तक मंत्र साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक सतत साधना करता रहे। वह निरन्तरता को न छोड़े। योगसूत्र में पातंजलि कहते हैं - ‘दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारा सेवितः।’ ध्यान की तीन शर्त है-दीर्घकाल, निरन्तरता एवं निष्कपट अभ्यास। साधना में निरन्तरता और दीर्घकालिता दोनों अपेक्षित है। अभ्यास को प्रतिदिन दोहराना चाहिए। आज आपने ऊर्जा का एक वातावरण तैयार किया। कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमण्डल स्वतः शिथिल हो जता है। …… 

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