Friday 5 September 2014

इसलिए मैं तुझे हुक्म देता हुं कि

एक बार राजा जनक ने धर्म-पद हासिल करने के बारे में सोचा। यहीं सोच उसने एक हजार गाय ले ली और उनके गले में 20-20 सोने की मोहरे बांध दी और आदेश दे दिया कि जो शस्त्रार्थ में जीत जाएगा,वह यह गाय ले जाएग। शस्त्रार्थ में कई ऋषियों ने हिस्सा लिया।जगज्वलक सभी ऋषियों में अव्वल रहे और एक हजार गाय और मोहरे साथ ले गए।

राजा ने कहा,‘ मैं ऐसी गाय फिर से दूंगा,जो मुझे ज्ञान की प्राप्ती करवाएगा’ जगज्वलक बड़ा ज्ञानी था,लेकिन मन के भीतर ज्ञान का अनुभव न करवा सका।

आखिर राजा ने एक सिंज्ञासन बनवाया। उसने देश के सभी ऋषि-ज्ञानियों को न्योता दिया। उसने अपने दरबार में यह हुक्म दिया कि जो मुझे ज्ञान देगा,वो इस सिंज्ञासन पर बैठ कर ही देगा। उसने उनके समक्ष यह शर्त रखी,कि ज्ञान इतनी जल्दी होना चाहिए ,जितना समय घोड़े पर सवार होने पर लगता है। सभी महात्मा गहरी सोच में पड़ गए कि ज्ञान कोई घोल तो नहीं जो पिला दिया जाए। इतने में अष्ट्वाकर जी आए उनकी शरीरिक दिख इतनी सुंदर नहीं थी। वह जाकर सिंज्ञासन पर बैठ गए। 

ऋषिओ ने समझा कि कोई पागल सिंज्ञासन पर बैठ गया है,और सभी हंसने लगे। अष्ट्वाकर जी ने कहा कि मैं जानता हुं कि यह ऋषिओ-मुनियों की सभा है,परन्तु नहीं,कयोंकि यह आत्मा को नहीं देखते,मोचियों की तरह चमड़े को ही देखते है।
अष्ट्वाकर जी ने,राजा जनक को कहा-तू ज्ञान लेना चाहता है। ज्ञान की कुछ भेंटा भी होती है,शुकराना भी होता है,क्या तुम मुझे दोगे। राजा ने कहा कि जो वस्तु मेरे पास है वो मैं आपको देने के लिए तैयार हुं। इसलिए मैं तुमसे 3 वस्तुएं मांग रहा हुं-तन,मन,और धन।

राजा ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा-मैंने दी। महात्मा ने राजा जनक को संक ल्प भरने के लिए कहा। अब महात्मा ने जनक से कहा,देख राजा। तू मुझे अपना तन, मन और धन दे चूका है। अब इसका मालिक मैं हुं, तू नहीं इसलिए मैं तुझे हुक्म देता हुं कि जहां जूते पड़े है,तुम वहां जा बैठो। सभी हैरत में पड़ गए कि राजा जूतों में जाकर कैसे बैठेगा,परन्तु राजा समझदार था चुप-चाप जूतों में जाकर बैठ गया।

अष्ट्वाकर ने यह इसलिए किया कि इससे राजा की लोक-लजा उतर जाएगी। ऋषि ने कहा अपने मन के भीतर किसी ख्याल को आने मत देना क्योंकि अब तुम्हारा तन,मन और धन सब कुछ मेरा है। राजा का मन अभी भी अपनी स्त्रीयों,देश-संपती की ओर जाता,कि यह भी अब ऋषि का है। मन की आदत है कि यह ज्यादा समय तक एक स्थान पर नहीं रह सकता। अंत राजा अपने मन की इकागरता के लिए आंखे बन्द कर लेता है। अपना मतलब पुरा होते देख,ऋषि ने पूछा तुम कहा हो, मैं अब मन के भीतर हुं। राजा का मन वहीं रूक गया और प्रभु का नाम लेते ही लगन रूहानी मंजिलों की सैर करने लगी।

अष्ट्वाकर ने कई बार राजा को बुलाया, लेकिन अब बुलाए बोलेगा कौन? क्योंकि राजा की आत्मा लीन हो चूकी थी। जब राजा ने आंखे खोली तो ऋषि ने पूछा -ज्ञान की प्राप्ती हो गई? राजा ने उत्तर दिया,जी हां हो गई। यह इतना महान और उत्तम था कि राजा ने कभी सोचा नहीं था।

ऋषि ने कहा, ‘ मैं तुम्हारा तन,मन और धन तुम्हें लौटाता हुं। तुम्हें प्रभु के नाम का अनमोल खजना मिल गया है,अब तुम संस्रिक पदार्थ में अपना लोभ रखना’।

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