Friday 19 September 2014

उस संसार का विस्तार भी इनसे ही हुआ है


आकाश शून्य है पर फैला नहीं। भारतीय तत्त्वदर्शन (फिलॉसफी) वैदिक काल से ही मानता और जानता रहा कि आकाश एक महत्त्वपूर्ण शक्तिशाली तत्त्व है। शेष 4 तत्त्व वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी क्रमशः आकाश के ही स्थूल रूप हैं। आकाश-तत्त्व ईश्वर या आत्मा की निकटता की दृष्टि से सर्वप्रथम है इसलिये उसकी शक्ति, ध्यान, फल भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। योग चूड़ामण्युपनिषद में कहा गया है-
तस्माज्जता परा शक्तिः स्वयं ज्योति रात्मिका
आतमन् आकाशः संभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भयः पृथिवी। तेषाँ मनुष्यादीनाँ पंचभूत समवायः शरीरम्।
ब्रह्म से स्वयं प्रकाश रूप आत्मा की उत्पत्ति हुई। आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पाँचों तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य-शरीर की रचना हुई है।” यह पाँच तत्त्व ही मिलकर शरीर के स्थूल और सूक्ष्म अवयवों का निर्माण करते हैं। इन तत्त्वों की स्थिति ही क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होती गई है। पृथ्वी से शरीर का विकास होता है। अग्नि से दृश्य की अनुभूति होती है। वायु से शरीर में प्राणों का संचार होता है गति एवं चेतनता आती है। आकाश-तत्त्व इन सब से सूक्ष्म अदृश्य एवं नियन्त्रक है। विचार, भावनायें और विज्ञान उसी से प्रादुर्भूत होता है। शरीर के पोले भाग में भी यह आकाश-तत्त्व ही भरा हुआ है। उसकी शुद्धि से विचार और भावनाएँ ऊर्ध्वगामी होती हैं। यह पाँच कोश हैं, पाँच महातत्व हैं इनसे ही शरीर का निर्माण हुआ है और बाहर जो कुछ दिखाई देता है उस संसार का विस्तार भी इनसे ही हुआ है। इन पाँच आवरणों के बीच में ब्रह्म छुपा बैठा है ऐसी भारतीय तत्त्वदर्शन की मीमांसा है।
एक समय आया जब पाश्चात्य सभ्यतावादी और प्रारम्भिक स्तर के वैज्ञानिकों ने इस तत्त्व-दर्शन को अस्वीकार ही नहीं कर दिया वरन् उसका उपहास भी उड़ाया। लोगों ने कहा कि ग्रह-उपग्रहों के बीच में ब्रह्माण्ड का करोड़ों-करोड़ मील क्षेत्र पोला नहीं तो और क्या है। वह तो स्पष्ट ही दिखाई दे रहा है। जो वस्तु है ही नहीं वह शरीर रचना में भाग भी कैसे ले सकती है। इस तरह की बातों से भारतीय तत्त्वदर्शन को वाक्जाल कहकर उसे सब तरफ से अपदस्थ करने का प्रयत्न किया गया।
इस भ्रान्त धारण पर प्रहार सर्व प्रथम 12 दिसम्बर 1901 में रेडियो संसार के अन्वेषणकर्ता मारकोनी ने किया। उन्होंने इंग्लैण्ड के पोल्डू नामक स्थान में एक अल्प विकसित संप्रेषण यन्त्र (ट्रान्समीटर) लगाया और एक संग्राह्य यन्त्र (रिसेप्शन) लेकर अमेरिका के न्यूफाउण्डलैण्ड पहुँचे। उनका कहना था कि वायु-मण्डल से भी ऊँचाई पर भी कोई ऐसी व्यवस्था है जो रेडियो तरंगों को परावर्तित कर सकती है। इस कल्पना का अन्य वैज्ञानिकों ने ठीक उसी तरह उपहास किया जिस तरह भारतीय तत्त्वदर्शन को ठुकराने का प्रयत्न किया गया था, तब रेडियो संचार व्यवस्था का स्थापना काल था। मारकोनी के पास कोई विकसित यन्त्र न थे। एरियल का तब विकास नहीं हुआ था, इसलिये इंग्लैण्ड से प्रेरित होने वाले संकेतों को पकड़ने के लिये धातु के तार से उड़ने वाली पतंग को एरियल बनाया गया। उस पतंग को 400 फीट ऊँचे उड़ाकर संग्रह यन्त्र (रिसीवर) से उसका सम्बन्ध जोड़ दिया गया। ठीक 12॥ बजे मारकोनी ने ही नहीं अनेकों वैज्ञानिकों ने भी इंग्लैण्ड से प्रसारित होने वाले तीन बिन्दुओं के संकेत सुने तो लोगों को मारकोनी के प्रमाणों के सम्मुख सिर झुकाना पड़ा और इस तरह पहली बार विश्व के बुद्धिमान् लोगों ने यह माना कि वायुमण्डल के अतिरिक्त भी कोई शक्ति तरंगें विद्यमान् हैं। आकाश-तत्त्व की जानकारी का यह श्रीगणेश मात्र था।
सूर्य के 11 वर्षीय चक्र के अनुसार सन् 1872 और 1889 में पृथ्वी पर दो भयंकर चुम्बकीय तूफान (मैगनेटिक स्टामर्सस) आये थे तब भी डा. स्टुअर्ट और डा.शूस्टर ने इस तरह का प्रतिपादन किया था पर वह प्रामाणिकता के अभाव में सिद्ध न किया जा सका, पर मारकोनी के प्रयोग ने वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिये एक नई दिशा दी। इसके बाद इंग्लैण्ड के हैवी साइड और अमरीका के वैज्ञानिक डा.कैनेली ने इस विज्ञान को आगे बढ़ाया और अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध किया कि आकाश में विद्युत कणों की परतें हैं इन्हें उन्होंने अपने नाम पर “कैनेली हैवी साइड परत” का नाम दिया। इसके बाद डा.ब्रीट, ट्यूब और डा.एडवर्ड एपल्टन आदि ने इस खोज को जारी रख कर यह सिद्ध किया कि आकाश में विद्युत कणों की ऐसी अनेक परतें हैं। इन अनेक परतों को “अयन मण्डल” (आइनोस्फियर) के नाम से पुकारा गया और तब से आइनोस्फियर सम्बन्धी एक स्वतन्त्र साइन्स बन गई है।

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