Tuesday 30 September 2014

मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाए।

‘नमः शिवाय’ शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य है। यह अनुभूति अभय पैदा करती है। रमण महर्षि से पूछा गया - ‘ज्ञानी कौन ? ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो।’ ‘नमः शिवाय’ अभय के द्वारा ज्ञान की ज्योति जलाता है। अतः मंत्र सृष्टा ऋषियों ने ॐ के साथ नमः शिवाय संयुक्त कर ॐ रूपी ब्रह्म को ‘शिव’ रूपी जगत के साथ मिलाया है।
मंत्र के तीन तत्त्व होते हैं -शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है- शब्द। शब्द मन के भावों को वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार सम्प्रेषण का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटोसजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन के भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है, जोर-जोर से बोलता है, ध्वनि की तरंगे तेज गति से प्रवाहित होती है, फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे-धीरे करता है, मंद कर देता है। पहले ओठ, दांत, कंठ सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं। ध्वनि मंद हो जाती है। होठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना - दोनों कंठ के प्रयत्न हैं। ये स्वर तंत्र के प्रयत्न हैं। जहां कंठ का प्रयत्न होता है वह शक्तिशाली तो होता है किन्तु बहुत शक्तिशाली नहीं होता। उसका परिणाम आता है किन्तु उतना परिणाम नहीं आता जितना हम इस मंत्र से उम्मीद करते हैं मंत्र की परिणति या मूर्घन्य तब वास्तविक परिणाम आता है जब कंठ की क्रिया समाप्त हो जाती है और मंत्र हमारे दर्शन केन्द्र में पहुंच जाता है। यह मानसिक क्रिया है। जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है, तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ एवं दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकंपन नहीं होता। मन ज्योति केन्द्र में केन्द्रित हो जाता है प्श्यन्ति वाक शैली में पूरे मंत्र को ललाट के मध्य में देखने का अभ्यास किया जाए। उच्चारण नहीं, केवल मंत्र का दर्शन, मंत्र का साक्षात्कार, मंत्र का प्रत्यक्षीकरण। इस स्थति में मंत्र की आराधना से वह सब उपलब्ध होता है जो उसका विधान है।

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