Thursday 11 September 2014

जिस तरह फूलों के बीच ही सुगंध बसती है

काहे रे बन खोजन जाई |
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ||
पुष्प मध्य ज्यों बास बसत है, मुकर माहि जस छाई|
तैसे ही हरि बसै निरंतर, घट ही खोजौ भाई ||
बाहर भीतर एकै जानों, यह गुरु ग्यान बताई।
जन नानक बिन आपा चीन्हे, मिटै न भ्रमकी काई ||
हे मन !!! तुझे प्रभु की खोज के लिए जंगलों में भटकने की क्या आवश्कता है |
वह प्रभु तो सभी में निवास करता हुआ भी सदा निर्लिप्त है | जिस तरह फूलों के बीच ही बास अर्थात सुगंध बसती है और दर्पण में हमारी परछाई छिपी है | उसी प्रकार वह परमात्मा भी तो अपने अंतर में छिपा हुआ है | उस परमात्मा की खोज भी अपने अंतर में ही करो | हम जो कुछ भी वाहरी जगत में देखते हैं , जो आनंद हमें भोतिक जगत में प्राप्त होता है उसका वास्तविक रूप तो हमारे ही आंतरिक जगत में छिपा हुआ है | परन्तु यह हमें गुरु से ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् ही पता चलता है | नानकदेव जी कहते हैं.... जब तक हम अपने आप को नहीं पहचानते के हम कौन हैं ? ...हमारा स्वरूप क्या है ? तब तक हमारा भ्रम दूर नहीं हो सकता | 

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