Monday 8 September 2014

अभिमानी व्यक्ति का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है

भाई मेरे काल की गति बड़ी ही सुन्दर है ..... उसका दर्शन करना आ गया तो उसको धारण करने वाले का भी दर्शन हो ही जायेगा ...परन्तु हम काल का चिन्तन ही नहीं करना चाहते उसके गति को रोक देना चाहते है ... हम जहां है जितने में हैं ...उससे भी आगे जाने की सोंचते हैं किन्तु काल को बाधित करके जो सम्भव नहीं ... यही अहंकार  जिनको जिनको हुआ उनका उनका निदान हुआ | ऐसा नहीं कि अहंकार केवल मानव या दैत्यों राक्षसों को ही हुआ देवताओं को भी खूब हुआ है ..उन्होंने भी अपने को काल से परे मान लिया तो उनके इस भ्रम को प्रभु ने दूर किया है .. पुराणों में इस तरह की कई कथा आती है जिसमे से एक कथा आपके लिए --- काल रूप  भगवान के सामने ब्रह्माजी, गरूड़जी, नारदजी तथा इन्द्र जैसों का अभिमान चूर-चूर हो जाता है तो साधारण मनुष्य की क्या बात है ?  अभिमानी व्यक्ति का तो कोई अस्तित्व ही  नहीं है |

देवराज इन्द्र कोई सामान्य देवता तो हैं नहीं ....भई ! वो एक मनवन्तर तक स्वर्ग के राजा हैं, कुछ काल  के लिये ही किसी को किसी देश राजा बना दिया जाय तो उसे बड़ा अभिमान हो जाता है तो ऐसे में जिसे एक मनवन्तर तक देवलोक का साम्राज्य मिल जाये तो उसे अभिमान होना ही है |

एक बार इन्द्र को बहुत अभिमान हो आया । प्रभु  ने सोचा इन्द्र के अभिमान को दूर करना होगा | भावी वश इंद्र को एक विराट महल बनवाने की सूझी सो  विश्वकर्मा को भवन निर्माण की जिम्मेदारी दे दी गयी | महल निर्माण पूरे वेग से चला किन्तु कोई रुकावट न आये सो इंद्र ने  पूरे सौ वर्षों तक  विश्वकर्माजी  को छुट्टी नहीं दी.. विश्वकर्मा जी .. ने भगवान से प्रार्थना की तो  भगवान नारायण एक बालक का रूप धारण कर इन्द्र के पास पहुँचे और पूछने लगे—हे इन्द्रदेव सुना कि आप बहुत बड़ा महल बना रहे हैं |  कितने विश्वकर्मा मिलकर इस महल को बना रहे हैं और कब तक यह तैयार हो जायेगा ?

 इन्द्र ने कहा -- यह कैसी बात पूंछा आपने अरे ! क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं ?

 बालक भगवान ने कहा --  इन्द्र ! यह निश्चित रूप से बता पाना मुश्किल है कि कितने ब्रह्माण्ड हैं ... तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि कितने हैं ?  अब उन ब्रह्माण्डों में कितने सारे इन्द्र और   कितने ही विश्वकर्मा हैं ?  यह कौन जान सकता है इन्हें भला कौन गिन सकता है |

इन्द्र देव ! कोई सागर की रेत  को भले ही  गिन ले लेकिन विश्वकर्मा और इन्द्रों की संख्या तो नहीं गिनी जा सकती है |

इसप्रकार  इन्द्र और बटु भगवान के बीच वार्तालाप चल ही रहा था कि इतने में वहाँ पर चींटियों का समुदाय  कतार बद्ध दिख पड़ा उन्हें देखते ही भगवान हँसने लगे..|

 इन्द्र पूछा - भगवान आप इन चीटियों की कतार को देख कर हँस क्यों रहे हैं ??

भगवान ने कहा-  हे देवेन्द्र !  ये जो चींटियाँ आपको दिख रही हैं न ..ये भी पहले इन्द्र ही रह चुके हैं और आज अपने कर्मों के अनुसार चींटियों की योनी में हैं | भाई काल की, कर्म की गति बड़ी न्यारी है जो देवता गण आज स्वर्गलोक में हैं वो किसी भी क्षण जीव-जन्तु, कीट,पतंग, वृक्ष आदि अनेकानेक योनियों में जा सकता है |
जब काल आएगा तो तुम भी कर्मानुसार ८४ लाख में से किसी योनी में दिखाई दोगे |

भगवान ऐसा कह ही रहे थे कि

इतने में एक कृशकाय वृद्ध महात्मा वहाँ पर पहुँच गये जिसने अपना सिर चटाई से ढका हुआ था और उनके शरीर के  एक-एक रोम साफ दिख रहे थे | भगवान ने वृद्धमहात्मा जी  से पूछा—महाराज ! आप कौन हैं ?  और कहाँ जा रहे हैं ? आपके शरीर पर यह लोमचक्र कैसा है ?
महात्मा ने कहा--- नारायण ! मैं क्या बताऊँ, अपनी बहुत थोड़ी  सी ही आयु को देख के मैंने अपना घर-गृहस्थी नहीं की  वक्षस्थल पर लोमचक्रों के कारण मुझे लोग लोमश कहते हैं | मेरे वक्षस्थल के लोम ही मेरी आयु संख्या के प्रमाण हैं |
एक इन्द्र के पतन होने पर मेरा एक रोम गिर पड़ता है, मेरे उखड़े हुये रोमों का यही रहस्य है | अब तक असंख्य इंद्र मर चुके  और आगे भी मरते रहेंगे , ऐसी दशा में मैं पुत्र, पत्नी, घर-बार लेकर क्या करूँगा ?

 नारायण ! भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ और मोक्ष से बढ़कर है | धन, ऐश्वर्य तो भक्ति के मार्ग में बाधक है| जो भगवान के सच्चे भक्त होते हैं वो तो भक्ति को छोड़कर स्वर्गादिलोकों को भी ग्रहण नहीं करते |

दुर्लभं श्रीहरेर्दास्यं भक्तिमुक्ते गरियशी |
स्वप्नवत् सर्वमैश्वर्यं सद्भक्ति व्यवधायकं ||

इतना कहकर लोमेश जी वहाँ से चले गये |

बालक भी कहीं गायब हो गया | इन्द्र बेचारे सोचते  ही रह गये कि क्या काल की महिमा है इससे कोई बच नहीं सका जिसकी इतनी लम्बी आयु है वो तो एक घास की झोपड़ी भी नहीं बनाता, केवल चटाई से ही काम चलाता है |....और फिर इन महात्मा की तुलना में मुझे ही कितना दिन रहना है जो मैं इस महल के चक्कर में पड़ा हूँ |
उन्होंनें शीघ्र ही विश्वकर्माजी को अवकाश दे दिया और विरक्त होकर वनस्थली की ओर चल पड़े किन्तु व्यवस्था को सुचारू तरीके से चलाने के लिए बृहस्पतिजी ने उन्हें समझा-बुझाकर फिर से राज्य कार्य में नियुक्त किया | पर यह इंद्र वो इंद्र नहीं रह गये थे इन्हें काल की महिमा और प्रभु सुमिरन का महत्व ज्ञात हो चुका था सो निर्लेप भाव से देवकार्य में लग गये |
भाई मेरे काल का ध्यान रखना (यह भी प्रभु का ही एक रूप है ) ही चाहिए ... जिससे अभिमान नहीं होगा और प्रभु सुमिरन में आसानी होगी .... आप स्वमेव धर्म के पथ पर चलेंगे | सो उपर कि  पंक्ति सच में बहुत ही सुन्दर है ..कि ... अहो प्रभु काल बड़ो बलकारी ||

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