Thursday 25 September 2014

अब वह अपने घर जाना चाहता था

भगवान बुद्ध के ये शब्द नोट कर लीजिए- 
‘इहासने शुण्यतु में शरीरम्’ त्वगस्थि मांसं प्रलयं च यातु।
अप्राप्यं बोधिं बहुकल्प दुर्लभाम् नेहासनात्कायमः चलिष्येत्।।
उपनिषद् के ऋषि की यह प्रार्थना भी हृदयंगम कर लीजिए - 
हिरण्मयेण (हिरण्मयेन) पात्रेण, सत्यस्थापिहितं मुखम्। 
तत्त्वं पूषन्न पावृणु, सत्य धर्माय दृष्टये।।
साधना में दृढ़ संकल्प एवं दृढ़ आस्था तथा पूर्ण समपर्ण का होना परमावश्यक है।
गुरु शिष्य का प्रकरण है। वर्षों तक गुरु के पावन सान्निध्य में शिष्य ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। अब वह अपने घर जाना चाहता था। घर का रास्ता उसके लिए अज्ञात था। उसने गुरु से अनुरोध किया, ‘गुरुदेव। आपको कष्ट न हो तो मेरा पथ-प्रदर्शन करें, अन्यथा मैं भटक जाऊंगा।’ गुरु ने शिष्य के हाथ में दीपक दिया और आगे हो गए। गुरुकुल के द्वार तक वे चलते रहे। उसके बाद शिष्य से कहा, ‘अब आगे मैं नहीं जाऊंगा। तुम अपना मार्ग स्वयं खोजो। उस खोज में कहीं भटक भी जाओ तो घबराना मत। एक दिन तुम अपनी मंजिल को अवश्य ही प्राप्त कर लोगे।’ शिष्य ने झुककर गुरु को प्रणाम किया। उसी समय गुरु ने फूंक देकर दीपक को बुझा दिया। शिष्य विस्मित हो गया। एक क्षण रुककर शिष्य बोला, ‘गुरुदेव, आप मेरे साथ यह कैसा मजाक कर रहे हैं? न आप साथ चलते हैं और न आगे का पथ-प्रदर्शन कर रहे है। अपना पथ मैं स्वयं देखूं, इसके लिए जो दीपक मेरे पास था, उसे भी आपने बुझा दिया है। अब मैं क्या करूंगा? गुरुदेव ने मुस्कराते हुआ कहा, ‘वत्स! डरो मत, मैं तुम्हें आत्म निर्भर (आत्म निर्भर) देखना चाहता हूं। यह जो दीपक तुम्हारे पास था, तुम्हारा अपना जलाया हुआ नहीं था। तुम स्वयं पुरुषार्थ करो, स्वयं प्रकाश पाओ, स्वयं दीपक जलाओ और स्वयं अपने दीपक बन जाओ।’

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