Sunday 28 September 2014

शब्द की साधना बहुत जरूरी है।

मंत्र क्या है ? मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचित्य शक्ति होती है। हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है। मन के तीन कार्य हैं-स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन। मन प्रतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है। किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं। इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बिम्ब ही सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है।
स्थूल रूप से शब्द दो प्रकार का होता है- (1) जल्प (2) अन्तर्जल्प। हम बोलते हैं, यह है जल्प। जल्प का अर्थ है-स्पष्ट वचन, व्यक्त वचन। हम बोलते नहीं किन्तु मन में सोचते हैं, मन में विकल्प करते हैं, यह है अन्तर्जल्प। मुुंह बंद है, होंठ स्थिर है, न कोई सुन रहा है फिर भी मन में आदमी बोलता चला जा रहा है, यह है अन्तर्जल्प। सोचने का अर्थ है-भीतर बोलना। सोचना और बोलना दो नहीं है। सोचने के समय में भी हम बोलते हैं और बोलने के समय में भी हम सोचते हैं। यदि हम साधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शब्द को समझकर उसके चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते-आते स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष़्म है वह हमें सुनाई नहीं देता, जो स्थूल है वही हमें सुनाई देता है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि। अश्रव्य ध्वनि अर्थात् (Ultra Sound Super Sonic) यह सुनाई नहीं देती। हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है। कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है। यदि हमारा कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो आदमी जी नहीं सकता। यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों से प्रकम्पित है। अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा-वर्गणा के पुदगल बिखरे पड़े हैं। बोलते समय भाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैं और आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं। हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं। मनुष्य जो सोचता है, उसके मनोवर्गणा के पुद्गल करोड़ों वर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रख सकते हैं। यह सारा जगत तरंगों से आंदोलित हैं। विचारों की तरंगे, कर्म की तरंगे, भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाश में व्याप्त है। मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है, मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। शब्द में असीम शक्ति होती है।

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